Khalsa Panth ke Sansthapak Guru Gobind Singh

Khalsa Panth ke Sansthapak Guru Gobind Singh – गुरु गोबिंद सिंह: चट्टान की तरह डटे योद्धा और खालसा पंथ के संस्थापक

Khalsa Panth ke Sansthapak Guru Gobind Singh – गुरु गोबिंद सिंह: चट्टान की तरह डटे योद्धा और खालसा पंथ के संस्थापक

Khalsa Panth ke Sansthapak Guru Gobind Singh – सिखों के दसवें गुरु, गुरु गोबिंद सिंह जी, न केवल धर्म के संरक्षक थे बल्कि एक महान योद्धा, कवि, और नेता भी थे। उनके जीवन का हर पहलू प्रेरणा से भरा हुआ है। 7 अक्टूबर 1708 को नांदेड़, महाराष्ट्र में उनकी शहादत हुई। उन्होंने अपने पूरे जीवन में धर्म, स्वतंत्रता, और मानवता के लिए संघर्ष किया।

गुरु गोबिंद सिंह का प्रारंभिक जीवन

गुरु गोबिंद सिंह जी का जन्म 22 दिसंबर 1666 को पटना साहिब, बिहार में हुआ। उनका प्रारंभिक नाम गोबिंद राय था। मात्र 9 वर्ष की आयु में, उन्होंने अपने पिता गुरु तेग बहादुर की शहादत के बाद गुरु गद्दी संभाली। यह उम्र भले ही छोटी थी, लेकिन उनके कंधों पर धर्म और सिख समुदाय को मुगलों के अत्याचारों से बचाने की जिम्मेदारी थी।

खालसा पंथ की स्थापना

1699 में वैशाखी के दिन गुरु गोबिंद सिंह जी ने आनंदपुर साहिब में खालसा पंथ की स्थापना की। उन्होंने “पंच प्यारे” चुने और सिखों को पांच ककार (केश, कड़ा, कच्छ, कृपाण और कंघा) धारण करने का आदेश दिया। खालसा पंथ का उद्देश्य अन्याय का विरोध और धर्म की रक्षा करना था।

मुगलों के खिलाफ संघर्ष

गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपने जीवनकाल में 14 प्रमुख युद्ध लड़े। उनके नेतृत्व में सिख सैनिकों ने मुगल सेना के बड़े से बड़े हमलों को धूल चटा दी।

मुगल सेनापति पाइंदा खान से उनकी लड़ाई का एक ऐतिहासिक प्रसंग है। युद्ध के दौरान गुरु गोबिंद सिंह जी ने कहा, “पहला वार तुम्हारी ओर से होगा।” पाइंदा खान ने तीर चलाया जिसे गुरु जी ने हवा में ही काट दिया। फिर उन्होंने अपने तीर से पाइंदा खान की गर्दन उड़ा दी।

इसके बाद उन्होंने कहा, “चिड़िया नाल बाज लड़ाऊं, तब गोबिंद सिंह नाम कहाऊं।” उन्होंने मुगलों को “चिड़िया” और सिख सैनिकों को “बाज” कहकर संबोधित किया।

मानवीय दृष्टिकोण: सोने से जड़े तीर

गुरु गोबिंद सिंह जी की वीरता के साथ-साथ उनका मानवीय दृष्टिकोण भी अद्वितीय था। वह अपने तीरों में सोना जड़वाते थे। जब शिष्यों ने इसका कारण पूछा, तो उन्होंने कहा, “मेरा कोई दुश्मन नहीं है। मेरी लड़ाई जुल्म और अन्याय के खिलाफ है। अगर मेरा तीर किसी को घायल कर देता है, तो यह सोना उसके इलाज में मदद करेगा। अगर वह मर जाए, तो यह उसके अंतिम संस्कार के काम आएगा।”

परिवार और बलिदान

  • गुरु गोबिंद सिंह जी का पूरा परिवार धर्म के लिए शहीद हो गया।
  • उनके पिता गुरु तेग बहादुर जी को औरंगजेब ने इस्लाम न अपनाने के कारण शहीद कर दिया।
  • उनके चारों पुत्रों ने भी धर्म की रक्षा में अपने प्राण न्योछावर कर दिए।
  • दो पुत्र युद्ध में शहीद हुए।
  • दो छोटे पुत्रों को मुगलों ने जिंदा दीवार में चुनवा दिया।

धोखे से हत्या

गुरु गोबिंद सिंह जी ने औरंगजेब के अत्याचारों का डटकर मुकाबला किया। औरंगजेब की मृत्यु के बाद, गुरु जी ने बहादुर शाह जफर को सिंहासन पर बैठाने में मदद की। इससे अन्य मुगल शासक चिढ़ गए।

नवाब वजीत खां ने दो गुप्तचरों को भेजकर गुरु गोबिंद सिंह जी पर धोखे से हमला करवाया। घायल होने के बाद भी गुरु जी ने अदम्य साहस दिखाया। अंततः 7 अक्टूबर 1708 को उन्होंने अपने प्राण त्याग दिए।

गुरु गोबिंद सिंह जी की रचनाएं

गुरु गोबिंद सिंह जी केवल योद्धा ही नहीं, बल्कि एक महान कवि और लेखक भी थे। उनकी काव्य रचनाएं “दशम ग्रंथ” के नाम से जानी जाती हैं। इनमें चंडी दी वार, जाप साहिब, खालसा महिमा, बचित्र नाटक, और जफरनामा जैसे ग्रंथ शामिल हैं। उन्होंने सिख धर्म के पवित्र ग्रंथ गुरु ग्रंथ साहिब को सिखों का अंतिम गुरु घोषित किया।

गुरु गोबिंद सिंह जी की शिक्षाएं

  • धर्म की रक्षा के लिए हमेशा तैयार रहें।
  • अहंकार का त्याग करें और मानवता की सेवा करें।
  • न्याय और सच्चाई के मार्ग पर चलें।
  • शराब, तंबाकू, और अन्य बुराइयों से दूर रहें।
  • जरूरतमंदों की मदद करें।

निष्कर्ष

गुरु गोबिंद सिंह जी का जीवन अदम्य साहस, बलिदान, और मानवता की सेवा का प्रतीक है। उन्होंने न केवल सिख धर्म को एक नई दिशा दी, बल्कि पूरी मानवता को अन्याय के खिलाफ लड़ने की प्रेरणा दी। उनका संदेश आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना उनके समय में था।

वाहे गुरु जी का खालसा, वाहे गुरु जी की फतेह!

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